Monday 26 September 2016

वाह ताज़

ताज होता सर पर तो मैं ताजमहल बनवा देता।
लाइन में खड़ा कर मजदूरों के हाथ मैं कटवा देता।
झिझकता मैं पल भर को न, इस कृत्य को करने से।
खून और बर्बरता की इस कहानी को मैं प्यार की निशानी बना देता
नज्ल लिख दूँ या फिर अफ़साने पढ़ लूँ।
खून की इस मुहब्बत में कुछ सफ़ेद चमक दूँ।
यूँ तो कहते तो बहुत होंगे कि हर चमकता पत्थर सोना नहीं होता।
पर ये सफ़ेद पत्थर भी कुछ कम नही हाँ जरूर ये सोना नहीं पर उससे कुछ कम भी नहीं।
लाल रंग चढ़कर भी देखो कितना सफ़ेद है,
दफ़न हैं कब्रें इसमें पर महकता बहुत तेज है।
वैसे तो यह बेइंतहां मुहब्बत की निशानी है
औरों की जबाँ पर , दिल के कोनों में बसे प्यार की कहानी है।
चाहे लग गए हों कितने साल कितने महीने बनने में इसको।
बह गयी हो दौलत , कट गए हों कितने हाँथ इसमें,
दोबारा इसजैसा न बनने देने को।
याद में बनवाया मुमताज की यह ताज शाहजहाँ ने।
नजरअंदाज नजरबन्द कर दिया उसके खुद के बेटे औरंगजेब ने इस ताज में ही।

Sunday 25 September 2016

रिश्ते वादे

रिश्ता बदल दिया है मैंने ,
निभाना नहीं है शायद मुझको।
रास्ता नहीं बदलूंगा अब,
कुछ और निभाने के लिए।
रस्मे बदल गईं
थोड़ी कड़वाहट आने पर
पर मैं नहीं बदला ,
यूँ तो टस से मस भी न हुआ,
मुझसे जुड़ा सब कुछ भी बदल जाने पर।

इतनी बेरुख़ी भी कम न थी मेरी
मुझसे मेरी पहचान तक छुपाने में।
जो रेत उडी थी रेगिस्तान में,
काफी थी मुझको मैं याद दिलाने में।

तकल्लुफ भी किया मैंने
यूँ वादे भी किये मैंने
पर कौन था मुझमें जो बतादे कि
ये सब किया
किससे मैंने!
ढूंढने निकला था जो
मैं मुझमें,
जाने कहाँ पहुँच गया मैं!
राह ढूंढता ही रह गया
ज़िन्दगी के इस मैखाने में।
खो गया हर वज़ूद मैं,
जाने और अनजाने में।
मिला भी तो कहाँ
फिर से उस फ़साने में।
बदल गया न जाने कैसे
मैं मुझको समझाने में।

Tuesday 13 September 2016

आसमां के नीचे गिरे पत्ते हरे हैं या सूखे क्या मालूम!

खुले आसमां के नीचे गीले पत्तों की तरह।
कोई गिला शिकवा हो मुझसे, मुस्कुराकर बोल दीजियेगा।

जिंदगी का सफर कैसा ये सफर

न हम हिन्दू हैं न हम मुसलमान हैं और न ही हम इंसान हैं हम तो सिर्फ जिंदगियां हैं जिन्हें कुछ पल के लिए आना होता है और कुछ पल में चले जाना ।ये तो हम है  जो कितनी कोशिश करे इसको रोके रखते हैं सजते संवरते इच्छाएं पूरी करते लेकिन हम एक शरीर मात्र तो हैं आत्मा तो हर शरीर बदल ही लेती है हम तो उसके पुराने -नए घर हैं और नए पुराने कपडे भी।हाँ तो हम सिर्फ शरीर हैं तो फिर कैसा धर्म , शरीर का तो कोई धर्म नहीं होता न ही कोई जाती होती है इस शरीर का सिर्फ एक धर्म होता है दुनिया में आना जिंदगी जीना और चलते बनना । पर पता नहीं हम लोगों ने इसे इतना क्यों बांधकर रखा हुआ हुआ है तरह तरह की रस्मों , कानूनों , बंधनो, रिश्तों , सबसे ज्यादा स्वार्थो में जकड़ा हुआ है । उड़ने दो पंछी को ! अगर मैं ऐसा कुछ बोलता हूं तो एक डर भाव पैदा होता है सबके मन में , अगर हर कोई कानून मुक्त,धर्म मुक्त,सीमाओं से मुक्त होगया तो हर किसी की मनमानियां बढ़ जाएंगी और इंसानी जिम्मेदारियां  ख़त्म हो जाएंगी और जब सबको उड़ने की आजादी हो जायेगी जब किसी का किसी पर हक़ नहीं रहेगा तो असंतुलन बढ़ जायेगा जिंदिगियों में फिर न कुछ काबू हो सकेगा अगर करना भी चाहेंगे।पर असलियत तो यही है हम पैदा होते हैं उन बरसाती पंखियों की तरह जो हर रौशनी के सामने जाती हैं उड़ती हैं फड़फड़ाती हैं गिर जाती हैं फिर चलती हैं फिर उड़ती हैं बहोत सी इस चक्कर में मकड़ी, चींटी,छिपकली जैसे जानवरों की दावत भी बन जाती हैं पर तसल्ली से अपनी एक ज़िन्दगी जीती हैं और सुबह तक सब एक सुर में ज़िन्दगी छोड़ जाती हैं। मैं मानता हूँ ज़िन्दगी मजाक नहीं होती और न ही आसान है जिंदगी बस एक सफर है जिंदगी तो इसे सिर्फ खुद के लिए मत जिए न सिर्फ धर्म के लिए जियो । जियो इसे आप जियो और सबके लिए जियो। न कोई दुश्मन हो न दोस्त सब हों जहाँ समान जिंदगी है उसका नाम । खुश रहो खुश करो और खुश जीना सीखो और सारे आडम्बर , कुरीतियों का बहिष्कार करो चाहे कोई भी धर्म उसको कैसी भी मान्यता क्यों न दिए हुए हो बस ये याद रखो आये हो तो कुछ जियो और कुछ करके जाओ जो खुद के हित से हटकर सबके हित में हो। जियो और जीने दो से सिर्फ काम नहीं चलेगा अब जियो के साथ अच्छी एक बेहतर जिंदगी भी देनी पड़ेगी।जिंदगी का दस्तूर है ये आओगे तो जाओगे भी न किसी में पैदा करने की ताकत है न मारने की और जो कोई ये सोचता है कि उसमें है वो अनभिज्ञ और बेवक़ूफ़ है। दो के मिलन से कोई आता नहीं वो बीज बोये जाते हैं जिसका छोर तो वो दोनों भी नहीं जानते वो तो उसे फलने फूलने का सहारा देते हैं प्यार और भरोसे की नींव रखते हैं उसपर और एक नयी दुनिया को एक मोड़ एक नया आधार देते हैं।क्या वो कर्ज होता है इस धरती का इस मिटटी का इस पानी का उस आग बबूलों का जो निराशा और हार का प्रतिशोध थे क्या उस प्यार का जो इन सब पर भारी था और है।और मरता भी कोई किसी की मौत नहीं हर कोई अपनी ही मौत मरता है कारण कुछ भी हो वजह कुछ भी।जाता कहाँ हैं होता क्या है कुछ पता नही बस हो जाता है।जैसे आता है जीता है जिलाता है और चला जाता है और रह जाता है तो बस दस्तूर ही यही रह जाता है बन जाता है।