Saturday 13 August 2016

देश हमें देता है सबकुछ

देश हमें देता है सबकुछ , हम भी तो कुछ देना सीखें।
राष्ट्र हित रक्षा में हम , जीना और मरना सीखें।।
डिगें नही व्यवधानों से हम , अडिग सत्य पर रहना सीखें।
देश हमें देता है सबकुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें।।

मन समर्पित , तन समर्पित और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती , तुझे कुछ और भी दूँ।।

माँ तुम्हारा ऋण बहुत है ,मैं अकिंचन।
फिर भी कर रहा हूँ, बस इतना निवेदन।।
थाल पर लाऊँ सजाकर,भाल जब भी।
कर दया स्वीकार लेना , यह समर्पण।।

गान अर्पित, प्राण अर्पित और रक्त का कण-कण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ।।

भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी।
शीश पर आशीष की छाया घनेरी।।
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित, आयु का क्षण क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ।।

अपने नही अभाव मिटा पाया हूँ जीवन भर।
पर औरों के अभाव मिटा सकता हूँ।।
तूफानों, भूचालों की भयप्रद छाया में।
मैं ही एक अकेला हूँ जो गा सकता हूँ।।
आज जीवन का हर एक पल समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ।।

मुझको अपने पर अदम्य विश्वास रहा है।
मैं खंडहर को महल बना सकता हूँ।।
ऐसे ही न जाने मेरे कितने साथी भूखे रह।
लगे हुए हैं औरों के हित अन्न उगाने।।
अपने घर के अंधकार की मुझे न चिंता।
औरों के घर के हैं मुझको दीप जलाने।।
कर्म समर्पित धर्म समर्पित और जिंदगी का सारा मर्म समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ।।

है शौक यही , अरमान यही।
हम कुछ करके दिखलायेंगे।।
मरने वाली दुनिया में हम ।
अमरों में नाम लिखायेंगे।।
जो लोग गरीब, भिखारी हैं।
जिनपर न किसी की छाया है।।
हम उनको गले लगाएंगे।
हम उनको सुखी बनाएंगे।।

हे दरिद्र नारायण तुझको,
प्राणों का आह्वान अर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती तुझे
कुछ और भी दूँ।।
                                                                                      १५ अगस्त १९४७ आजाद भारत-भारतीयों से प्रेरित 
       

टुटा हुआ मकबरा

रास्तों को खोल दूँ सपने बिखेर दूँ अपनों को छोड़ मैं जाऊँ फिर कहाँ।
जाना था जहाँ मुझे , जाने न कहाँ मुझे , अब सोचूं बस मैं यही, जाऊँ क्यों वहाँ।
रंगों को अब घोल कर जिंदगी का रस निचोड़ कर ,सारे अपनों को मैं छोड़ कर पहुंचा भी तो पहुँचा मैं कहाँ।
यारों की वो यारियां, फूलों की महकती क्यारियां,नन्हे मुंहों की किलकारियां ,ये सब छोड़ अगर मैं पहुंचा भी तो पहुँचूँगा मैं कहाँ।

मैंने खुदको बदलना सीखा है।

गुजरे हुए लम्हों को पकड़ना सीखा है 
मैंने रास्तों को मोड़कर बदलना सीखा है 
ऊंचाइयों पर पहुंचकर भी संभालना सीखा है 
मैंने नीचे गहराईयों में जाकर उतरना सीखा है। 
खतरों को भांपकर सुधरना सीखा है 
मैंने हर खासोआम को जानकर, समझकर 
दिलखोलकर प्यार करना और जीना सीखा है।