Monday, 17 February 2020

Kuch to Dekha hai

"कुछ तो देखा"

सिमटते हुए वक्त को,
    किसने देखा है।

जिंदगी में पड़ी, 
   सिलवटों को...
        किसने देखा है।

मुरझाए हुए पन्नों में बंद,
   लिखावट को...
      किसने देखा है।

आसमां में टूटे,
   टुकड़े हुए तारों को, 
       किसने देखा है।

सोच ये है कि,
   जिंदगी आंखों से....
      दिल तक जाती है।

दिल में ठहरकर,
    जिंदगी सांसों में...
       बह जाती है।

रुकती है और कहती है, 
 थोड़ा रुको... 
     वो भी अभी आती है।

सांस बनकर आयी थी,
   और सांस बनकर,
       चली जाती है।

रात भी देखी,
    और दिन भी देखा;

आती जाती सांसों ने,
     हर बदलता...
        मौसम भी देखा।

किसी ने आंखों से देखा,
     किसी ने मन से देखा

हमने तो जिंदगी के,
     हर पल में....
           अपनापन देखा

उजड़े हुए जंगल में,
    खिलता  हुआ ...
         उपवन देखा।

जले हुए की राख में 
    इक नया जीवन देखा।

सूरज की रोशनी देखी,
      चांद का जगमग...
             नूर भी देखा।

खुले आसमां से,
   बारिश की एक...
          बूंद को देखा।

उन बारिश की बूंदों में,
      एक बदलता ....
          सरोवर देखा।

ढूंढा खूब ख़ुद को,
   पर खुद से ख़ुद को...
      कभी..कहीं नहीं देखा।

मैंनेे मेरे आसमां को,
    जमीं पर उतरते देखा।
                            
                  -ओशो गुप्ता_

Saturday, 15 February 2020

बदलती जिंदगी

Kuch to dekha

सिमटते हुए वक्त को किसने देखा है
जिंदगी में पड़ी सिलवटों को किसने देखा है
मुरझाए हुए पन्नों में बंद लिखावट को किसने देखा है
आसमां में टूटे टुकड़े हुए तारों को किसने देखा है
सोच ये है कि जिंदगी आंखों से दिल तक जाती है
दिल में ठहरकर जिंदगी सांसों में बह जाती है
रुकती है और कहती है थोड़ा रुको मैं अभी आती है
सांस बनकर आयी थी और सांस बनकर चली जाती है
रात भी देखी और दिन भी देखा 
आती जाती सांसों ने हर बदलता मौसम भी देखा।
किसी ने आंखों से देखा किसी ने मन से देखा 
हमने तो जिंदगी को हर एक जीवन से देखा
उजड़े हुए जंगल में खिलता कमल देखा।
जले हुए की राख में नया जीवन देखा।
सूरज की रोशनी देखी चांद का नूर भी देखा।
खुले आसमां से बारिश की बूंद को देखा।
उन बारिश की बूंदों में एक बदलता सरोवर देखा।
ढूंढा खूब ख़ुदको पर खुदसे ख़ुदको कभी कहीं न देखा।
मैने मेरे आसमां को जमीं पर उतरते देखा।

समय से हकीकत तक

समय के उन पहियों ने जब मुड़कर
लकीर जो दिल पर नसों से खींच दी है
जकड़ लिया जब नस ने दिल को
ऐसा लगा जैसे कि 
डोर सांस की किसी ने खींच दी है।

 सांस भी अब लगी चलने आहिस्ता,
जैसे डोर पतंग की किसी ने खीच ली है।
सांस छोड़ने पर भी लगे अब ऐसा, 
जैसे अभी तो केवल, ढील डोर ने दी है।